झारखंड के स्वतंत्रता सेनानी तिलका मांझी।। Freedom fighters of Jharkhand-itsdpktym
झारखंड के स्वतंत्रता सेनानी
झारखंड के सबसे पहले स्वतंत्रता सेनानी तिलकामांझी है।इनका जन्म 11 फरवरी 1750 इसवी को तिलकपुर थाना सुल्तानगंज जिले में हुआ।
तिलकामांझी का संथाल का या फिर पहाड़िया का होने का लेकर काफी मतभेद है परंतु महाश्वेतादेवी के बांग्ला उपन्यास सालगिरह डाके में तिलकामांझी को संथाली आदिवासी बताया गया है।
तिलकामांझी का वास्तविक नाम जावरा पहाड़िया था जबरा पहाड़िया इनका वास्तविक नाम है और इनका नाम तिलकामांझी नाम अंग्रेजो के द्वारा दिया गया था। तिलका का अर्थ होता है गुस्से लाल आंख वाला और मांझी पहाड़िया समुदाय के ग्राम प्रधान को मांझी कहा जाता है इन्हीं दो शब्दों के मेल से तिलकामांझी नाम उनका रखा गया था।तिलकामांझी स्वाभिमानी दूरदर्शी दबंग तीरंदाजी और स्वतंत्रता प्रेमी थे अंग्रेजों के अत्याचार के कारण काफी विरोधी बन गए।जिसके बाद उन्होंने भागलपुर के निकट बंजारी जोर नामक स्थान में एक दल तैयार करके विद्रोह शुरू किया। वे सरकारी खजाना को लूट कर गरीबों में बांट दिया करते थे। 1784 इसवी में क्लीवलैंड नामक अधिकारी को राजमहल क्षेत्र का सुप्रिडेंट बनाकर अंग्रेजी सरकार ने भेजा था। उस समय तिलकामांझी अंग्रेजों के विरुद्ध काफी भीषण आंदोलन कर रहे थे इन्हीं सभी को देखते हुए अंग्रेज सरकारों ने क्लीवलैंड को अधिकारी बनाकर राजमहल में भेजा उसके बाद क्लीवलैंड ने पहाड़ियों सरदार को अपने पक्ष में मिलाकर पहाड़ियां सैनिक टुकड़ी बना ली। क्लीवलैंड ने 9 महीने में 47 गांव का 13100 पहाड़िया सैनिक तैयार किया। तिलकामांझी गोरिल्ला युद्ध में माहिर थे वह चुपके वार करने में काफी होशियार थे वह अंग्रेजी फौज पर तीन और गुलेल से निशाना लगाते थे। 1784 इसवी में तिलका मांझी भागलपुर मैं खुलेआम अंग्रेजों पर आक्रमण करना शुरू कर दिया और अंग्रेजी अधिकारी क्लीवलैंड को तीर मारकर गिरा दिया। जिसके बाद अंग्रेजी सरकार उग्र हो गई।क्लीवलैंड की हत्या करने के बाद तिलकामांझी सुल्तानगंज की पहाड़ियों में शरण ले लेता है। पहाड़िया सरदार जोरा जिसने अंग्रेजो का साथ दिया था तिलकामांझी और उसके साथियों को घेर लिया। सरदार जोरा ने अंग्रेजी अधिकारी आयरकूट जो क्लीवलैंड के मृत्यु के बाद वहां के अधिकारी बने थे उसे तिलकामांझी का पता बता दिया। जिसके बाद आयरकूट अंग्रेजों की बहुत बड़ी सेना लेकर सुल्तानगंज की पहाड़ियों में छुपे हुए तिलकामांझी को धोखे से पकड़ लेती है। ऐसा ऐसा कहा जाता है कि तिलकामांझी को अंग्रेजों ने चार घोड़ों के पीछे रस्सी से बांधकर घसीटते हुए भागलपुर लेकर आया था।खून से लाल तिलकामांझी का शरीर होने के बावजूद भी वह जिंदा थे और गुस्सैल थे यह देख कर अंग्रेजों की डर का ठिकाना नहीं रहा और और तिलकामांझी को13 जनवरी 1750 ईसवी में भागलपुर में बरगद के पेड़ पर लटका कर फांसी दे दिया गया।
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